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________________ १३४ यह हम जानते हैं कि प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते हैं- शुद्ध और कृत्रिम । मुड रूप में परनिमित्त की अपेक्षा नहीं होती पर कृत्रिम रूप में यह अपेक्षा बनी रहती है। शुद्ध रूप के लिए परमार्थ, निश्चय, वास्तविक आदि नाम दिये जाते हैं और कृत्रिम रूप को अपरमार्थ, व्यवहार, अशुद्ध आदि शब्दों द्वाख व्यक्त किया जाता है। आत्मा का वर्णन भी इन्हीं दोनों दृष्टियों से जैनागमों में मिलता है। निश्चयनय से जीव अमूर्तिक है पर व्यवहारनय से वह कर्मों से आवद्ध होने के कारण मूर्तिक है। नवीन जीवन धारण करने की प्रक्रिया इसी तत्व पर अवलम्बित है। हमारे वर्तमान जीवन में सत्-असत् कर्मों के जो संस्कार बन जाते हैं वे ही भावी जन्म के कारण होते हैं। जातिस्मरण की अनेक घटनायें पुनर्जन्म को ही प्रमाणित करती हैं। आत्मा जीव है और उपयोगमयी अथवा ज्ञानदर्शनमयी है । इन विशेषणों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। उसकी स्वतंत्र सत्ता है। चार्वाक् और बौद्ध दर्शन आत्मा के पृथक् अस्तित्व के विषय में संदिग्ध हैं। उनको उत्तर देने के लिए 'जीव' विशेषण का प्रयोग किया गया है। नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिकों को उत्तर देने के लिए उपयोगमयी विशेषण का प्रयोग हआ है। वे ज्ञान-दर्शन को आत्मा का स्वभाव न मानकर उसे उसका औपधिक गुण मानते हैं जो बुद्धयादि गुणों के संयोग से उत्पन्न होता है। आत्मा और ज्ञान उनकी दृष्टि में पृथक्-पृथक् तत्त्व हैं जो समवाय सम्बन्ध से परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं। जैनों के अनुसार एक तो समवाय सम्बन्ध की ही सिद्धि नहीं होती क्योंकि उसकी सिद्धि में अनवस्था दोष आता है और दूसरे, समवाय के नित्य और व्यापक मानने पर अमुक मान का सम्बन्ध अमुक आत्मा से ही है यह कैसे निश्चित किया जा सकता है ? और फिर जब आत्मा को सर्वव्यापक माना गया है तो एक आत्मा का मान सभी आत्मानों में होना चाहिए। पर होता नहीं। यदि होता तो मंत्र का ज्ञान मैत्र में हो जाता। यदि आत्मा और शान में कर्तृकरण भार -माना जाय तो कर्ता और करण के समान दोनों को बिलकुल पृथक् मानना होगा पर वे पृषक हैं नहीं। पर्याय-भेद से ही उनमें पार्थक्य दिखाई देता है । . 'अमूर्तिक' विशेषण से कुमारिल मट्ट मत का परिहार किया गया है जो उसे मूर्तिक मानते हैं। शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में पुद्गल के गुण, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नहीं होते इसलिए वह अमूर्तिक है। पर संसार अवस्था में पौद्गलिक कमों के कारण वह रूपादिवान् होकर मूर्तिक हो जाता
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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