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________________ इतित्व प्रतिम है। उपलब्ध परम्पराबों के अवलोकन से स्पष्ट है कि जो प्रपुर धार्मिक वाममय सम्प्रति हमें प्राप्त है वह मूलतः रचित वाग्मय का एक स्वल्प बंशमात्र है। इससे मूल धार्मिक साहित्य की अनन्यसाधारण विशालता का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। किन्तु जैनों की साहित्यिक गतिविधि केवल धार्मिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रही। उन्होंने लौकिक साहित्य का भी बड़े पैमाने पर निर्माण किया और व्याकरण जोतिष, कथा एवं ललित वामय के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम है। अपना सन्देश जन-साधारण तक पहुंचाने के उद्देश से साहित्य-सृजन के लिए संस्कृत के अतिरिक्त लोक-भाषाबो का उपयोग किया और इसका मधुर फल हमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और बाधुनिक भारतीय भामाबो में रचित बहमन्य ग्य-राशि के उप में उपलब्ध है। कतिपय बाधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध प्राचीनतम श्रुतियो की रचना का श्रेय जैन लेखकों को प्राप्त है। यही बात कला के विभिन्न अंगो के विषय में सत्य है। अन्य धर्म-सम्बयामो के समान जैनधर्म को भी कविम्य पजवंशो का मामय मिला। किन्तु बने अधिक महत्त्वपूर्ण बात है व्यापारी वर्ग में जैन धर्म की कोधिया। इस धर्म के बवाल समड अनुयायियो अपना बार ऐश्वर्य विशाल वसतिको एवं गतिरो के निर्माण पर उड़ेल दिया और यह परम्पयाधुनिक काल तक पली बा.रही है। इनमें से अनेक कृति कलासक दृष्टि से अत्यन्त महट है बोरभावीय कला का कोई भी विद्यार्थी इनकी उपेक्षा नही कर सकता। धार्मिक पदार्शनिक चिन्तन एव सृजन तो अस्तित्व का प्रस्ता । अतः इस विषय में कुछ भी कहना अनावश्यक है। . ग. भास्कर ने प्रस्तुत अन्य मे जैन धर्म एवं संस्कृति के इन सभी पक्षो का सविस्तर विवेचन किया है। उनकी अन्य प्रकाशित कृतियों की भांति यह अ नी उनके ब के गम्भीर मध्ययन एवं परिषम का परिणाम है। भले ही गुज पालकों को उनके कतिपय विचार मान्य न हो, किन्तु अन्य की उपयोगिता एवं महल के विषय में दो मत नहीं हो सकते। इस में संशय हो, किसी बसना हिन्दी में जैन संसहति एवं वन पर बचावधि प्रकाशित श्रेष्ठतम ग्रन्पों होगी और विवज्यमन में सका बाबर होगा। विमान प्रात भारतीय विमान
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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