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________________ ४. समवायांग-इसमें कुल २७५ सूत्र हैं जिनमें ठाणांग के समान संख्याक्रम से निश्चित वस्तुओंका निरूपण किया गया है । यद्यपि यहां कोईक्रम तो नहीं पर उसी का आधार लेकर संख्याक्रम सहस्त्र, दस सहस्र और कोटाकोटि तक पहुंची है । ठाणांग के समान यहां भी महावीर के बाद की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। उदाहरणतः १०० वें सूत्र में गणधर इन्द्रभूति और सुधर्मा के निर्वाण से संबद्ध घटना । ठाणांग और समवायांग की एक विशिष्ट शैली है जिसके कारण इनके प्रकरणों में एकसूत्रता के स्थानपर विषयवैविध्य अधिक दिखाई देता है । इसमें भौगोलिक और सांस्कृतिक सामग्री भरी हुई है। इनकी शैली अंगुत्तर निकाय और पुग्गलपञ्चत्ति की शैली से मिलती-जुलती है। ५. वियाहपण्णत्ति-अन्य की विशालता और उपयोगिता के कारण इसे 'भगवतीसूत्र' भी कहा जाता है। इसमें गणधर गौतम के ६००० प्रश्न और महावीर के उत्तर निबद्ध हैं । अधिकांश प्रश्न स्वर्ग, नरक, चन्द्र, सूर्य, आदि से संबद्ध हैं । इसमें ४१ शतक हैं जिनमें ८३७ सूत्र हैं । प्रथम शतक अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । आगे के शतक इसी की व्याख्या करते हुए दिखाई देते हैं । यहा मक्खलि गोसाल का विस्तृत चरित भी मिलता है। बुद्ध को छोड़कर पार्श्वनाथ और महावीर के समकालीन आचार्य और परिवाजक, पार्श्वनाथ और महावीर का परम्पराभेद, स्वप्नप्रकार, जवणिज्ज (यापनीय) संघ, वैशाली में हुए दो महायुद्ध, वनस्पतिशास्त्र, जीवप्रकार आदि के विषय में यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण जानकारी देता है । इसमें देवधिगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित नन्दिसूत्र का भी उल्लेख है जिससे स्पष्ट है कि इस महामन्य में महावीर के बाद की लगभग एक हजार वर्ष की परम्पराओं का संकलन है । इसकी विषय-सूची भी बड़ी लम्बी चौड़ी है । इसमें गद्यसूत्र ५२९३ और पद्यसूत्र ६. नायापम्मकहाओ-इसमें भ. महावीर द्वारा उपदिष्ट लोकप्रचलित धर्मकषाओं का निबन्धन है जिसमें संयम, तप, त्याग आदि का महत्व बताया गया है । इस ग्रन्थ में दो श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में नीति कषानों से संबद्ध उन्नीस अध्ययन हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में धर्मकवायें संकलित है । शैली रोजक और आकर्षक है । इसमें मेषकुमार, बन्ना और विषय गेर, सागरदत्त और जिनदत्त, कच्छप और श्रृंगाल, शैलक मुनि और सुक परिव्राजक, तुंब, रोहणी, मल्लि, भाकंदी, दुर्दर, अमात्य तेमलि, द्रोपदी, पुण्डरीक, कुण्डरीक, गजसुकुमाल, नंदमणियार आदि की कथायें संकलित हैं। ये कथायें घटना प्रधान तथा नाटकीय तत्वों से आपूर हैं । सांस्कृतिक महत्त्व की सामग्री भी इसमें सनिहित है।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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