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________________ ८० १. आचारांग - यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में सत्थ परिण्णा आदि नव अध्ययन हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पांच । प्रथम श्रुतस्कन्ध में पाणिपात्री साधुओं का कोई उल्लेख भले ही न हो पर उसका झुकाव अचेलकता की मोर अवश्य है । अतः यह भाग प्राचीनत रहे । पाणिपात्री साधुओं के अस्तित्व को उत्तर कालीन विकास का परिणाम भी नहीं कहा जा सकता । द्वितीय श्रुतस्कन्ध चूलिका के रूप में लिखा गया है जिनकी संख्या पांच है । चार चूलिकायें आचारांग में और पंचम चूलिका विस्तृत होने के कारण पृथक् रूप में निशीथ सूत्र' के नाम से निबद्ध है । यह भाग प्रथम श्रुतस्कन्ध के उत्तर काल का है । इस ग्रन्थ में गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। इसमें मुनियों के आचारविचार का विशेष वर्णन है। महावीर की चर्या का भी विस्तृत उल्लेख हुआ है । नियुक्तिकार की दृष्टि से द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थविरकृत है । महावीर का जीवन भी यहां चमत्कारात्मक ढंग से मिलता है । २. सूयगडंग- इसमें स्वसमय और परसमय का विवेचन है । इसे दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त किया गया है । प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैंसमय, वेयालिय, उपसर्ग, स्त्रीपरिज्ञा, नरकविभक्ति, वीरस्तव, कुशील, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग, समवशरण, याथातथ्य, ग्रन्थ आदान, गाथा और ब्राह्मणश्रमण निर्ग्रन्थ । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सात अध्ययन हैं- पुण्डरीक, क्रियास्थान, आहारपरिशा, प्रत्याख्यानक्रिया, आचारश्रुत, आर्द्रकीय तथा नालन्दीय | प्रथम श्रुतस्कन्ध के विषय को ही यहां विस्तार से कहा गया है । अत: निर्युक्तिकार ने इसे " महा अध्ययन" की संज्ञा दी है । इस ग्रंथ में मूलतः क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद आदि मतों का प्रस्थापन और उसका खण्डन किया गया है । यह ग्रन्थ खण्डन - मण्डन परम्परा से जुड़ा हुआ है । ३. ठाणांन - इसमें दस अध्ययन हैं और ७८३ सूत्र हैं जिनमें अंगुत्तरनिकाय के समान एक से लेकर दस संख्या तक संख्याक्रम के अनुसार जैन सिद्धान्त पर आधारित वस्तु संख्याओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है। यहां भ. महावीर की उत्तर कालीन परम्पराओंको भी स्थान मिला है। जैसे नवें अध्ययन के तृतीय उद्देशक में महावीर के ९ गणों का उल्लेख है । सात निन्हवों का भी यहाँ उल्लेख मिलता है - जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल । इनमें प्रथम दो के अतिरिक्त सभी निन्हवों की उत्पत्ति महाबीर के बाद ही हुई । प्रव्रज्या, स्थविर, लेखन- पद्धति आदि से संबद्ध सामग्री की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है । इसका समय लगभग चतुर्थ पंचम ई. शती निश्चित की जा सकती है ।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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