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________________ ७८ भुतको मौलिकता: उपर्युक्त वाचनाओं के माध्यम से श्वेताम्बर परम्परा ने दृष्टिवाद को छोड़कर समूचे आगम साहित्य को सुव्यवस्थित करने का यथाशक्य प्रयत्न किया । परन्तु दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती । उसकी दृष्टि में तो लगभग संपूर्ण मागम साहित्य क्रमशः लुप्त होता गया । जो आंशिक ज्ञान सुरक्षित रहा उसी के आधार पर षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना की गई। पर इसे भी हम बिलकुल सत्य नहीं कह सकते । यह अधिक संभव है कि श्रुतागमों में किये गये परिवर्तनों को लक्ष्यकर दिगम्बर परंपरा ने उन्हें 'लुप्त' कह दिया हो और संघर्ष के क्षेत्र से दूर हो गये हों। डॉ. विन्टरनि स भी समूचे आगमों को प्राचीन नहीं स्वीकारते । लगभग एक हजार वर्षों के बीच परिवर्तन-परिवर्धन होना स्वाभाविक है। वेचरदास दोसी ने मूलागम और उपलब्ध आगम में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि बलभी में संग्रहीत अंग साहित्य की स्थिति के साथ भ. महावीर के समय के अंग साहित्य की तुलना करने वाले को दो सौतेले भाइयों के बीच जितना अन्तर होता है उतना अन्तर-भेद मालूम होना सर्वथा संभव हो। वर्तमान में उपलब्ध आगमों में अचेलकता को स्थान-स्थान पर उपादेय और श्रद्धास्पद माना है तथा सवेलकता को भाव की प्रधानता का तर्क देकर स्वीकार किया गया है । डॉ. जेकोबी और देवर भी आगमों में परिवर्तन-परिवर्धन को स्वीकार करते हैं । यह इससे भी स्पष्ट है कि भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में जो उदाहरण आगमों मे दिये गये है वे आज उपलब्ध आगमों में अप्राप्य हैं। ___ जो भी हो, यह निश्चित है कि महावीर निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद जो ये आगम संकलित किये गये, उनमें परिवर्तन-परिवर्धन अवश्य हुए हैं। स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययन आदि, ग्रन्थों में वर्णित कुछ विषय स्पष्टतः उत्तरकालीन प्रतीत होते हैं ' । उनका अन्तः-बाहय परीक्षणकर समय निर्धारण करना अत्यावश्यक है । आगमों में "अट्ठ पण्णत्ते", "सुयं मे माउसं तेण भगवया एवमत्य" आदि जैसे शब्द भी परिवर्तन-परिवर्धन के माहत साहित्य का वर्गीकरण : दिगम्बर परम्परा में परम्परागत शास्त्रों के लिए प्रायः 'श्रत' और श्वेताम्बर परम्परा में 'आगम' शब्द का प्रयोग हुआ है । श्रुत का अर्थ है वे १. हिस्ट्री वाफ इन्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ. ४३१-४३४. २. बैन साहित्य में विकार, पृ. २३.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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