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________________ ७६ वाचनाओं के माध्यम से यद्यपि इन आगमों का परीक्षण कर लिया जाता था फिर भी चिन्तन के प्रवाह को रोकना सरल नहीं होता था । i) पाटलिपुत्र वाचना : भ. महावीर के श्रुतोपदेश को भी इसी प्रकार की श्रुति परम्परा से सुरक्षित करने का प्रयत्न किया गया। संपूर्ण श्रुत के ज्ञाता निर्युक्तिकार भद्रबाहु से भिन्न आचार्य भद्रबाहु थे जिन्हें श्रुतकेवली कहा गया है। म. महावीर के परिनिर्वाण के लगभग १५० वर्ष बाद तित्थोगालीपइन्ना के अनुसार उत्तर भारत में एक द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा जिसके परिणाम स्वरूप संघभेद का सूत्रपात हुआ । दुर्भिक्ष काल में अस्तव्यस्त हुए श्रुतज्ञान को व्यवस्थित करने के लिए थोड़े समय बाद ही लगभग १६२ वर्ष बाद पाटलिपुत्र में एक संगीति अथवा वाचना हुई जिसमें ग्यारह अंगों को व्यवस्थित किया जा सका । बारहवें अंग दृष्टिवाद के ज्ञाता मात्र भद्रबाहु थे जो बारह वर्ष की महाप्राण नामक योगसाधना के लिए नेपाल चले गये थे । संघ की ओर से उसके अध्ययन के लिए कुछ साधुओं को उनके पास भेजा गया जिनमें स्थूलभद्र ही सक्षम ग्राहक सिद्ध हो सके । वे मात्र दश पूर्वो का अध्ययन कर सके और शेष चार पूर्व उन्हें वाचनाभेद से मिल सके, अर्थतः नहीं । धीरे-धीरे काल प्रभाव से दशपूर्वी का भी लोप होता गया । I गिम्बर परम्परा के अनुसार महावीर के निर्वाण के ३४५ वर्ष बाद दशपूर्वो का विच्छेद हुआ। अंतिम दशपूर्व ज्ञानधारी धर्मसेन थे । श्वेताम्बर परम्परा भी इस घटना को स्वीकार करती है, पर महावीर निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद । उसके अनुसार दशपूर्वज्ञान के धारी अंतिम आचार्य वज्र थे । श्रुतिलोप का क्रम बढ़ता ही गया । दशपूर्वी के विच्छेद हो जाने के बाद विशेष पाठियों का भी विच्छेद हो गया । दिगम्बर परम्परा इस घटना को महावीर निर्वाण के ६८३ वर्षों के बाद घटित मानती है पर श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आर्यबज्र के बाद १३ वर्षों तक आर्यरक्षित युगप्रधान आचार्य रहे । वे साढ़े नव पूर्वो के ज्ञाता थे । उन्होंने विशेष पाठियों का क्रमशः हास देखकर उसे चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया। फिर भी पूर्वो के लोप को बचाया नहीं जा सका । ii) माथुरी वाचना : पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना के पश्चात् दो दुर्भिक्ष और पढ़-प्रथम महावीर निर्वाण के २९१ वर्ष बाद, आर्यसुहस्ति सूरि के समय, संप्रति के राज्यकाल में १.पी. ८०१-२
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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