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________________ प्रतिशोध नही लेता । क्षमा धारण करने से ही अहिंसा वीरो का धर्म वनती है। उत्तराव्ययन' सूत्र के २६वे 'सम्यक्त्व पराक्रम' अध्ययन में गौतम स्वामी भगवान महावीर से पूछते है-खमावण्याए ण भते ! जीवे कि जणयइ ? हे भगवन् । अपने अपराध की क्षमा मागने से जीव को किन गुणो की प्राप्ति होती है ? उत्तर में भगवान् फरमाते हैं-समावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ, पल्हायण भावमुवगए य सव्वपाणभूय जीव सत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ, मित्ती भावमुवगए यावि जीवे भावविसोहि काऊण णिभए भवई ॥१७॥ अर्थात् क्षमा मागने से चित्त मे आत्लाद भाव का संचार होता है, अर्थात मन प्रसन्न होता है। प्रसन्न चित्त वाला जीव सव प्राणी, भूत, जीव और सत्वो के साथ मैत्रीभाव स्थापित करता है, समस्त प्राणियो के साथ मैत्रीभाव को प्राप्त हुआ जीव अपने भावो को विशुद्ध वनाकर निर्भय हो जाता है। निर्भीकता का यह भाव वीरता की कसौटी है। बाहरी वीरता मे शत्रु से हमेशा भय बना रहता है, उसके प्रति शासक और शासित, जीत और हार, स्वामी और सेवक का भाव रहने से मन मे संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं। इस बात का भय और आशंका वरावर बनी रहती हैं कि कव शासित और सेवक विद्रोह कर बैठे। जब तक यह भय बना रहता है तब तक मन वेचैनी और व्याकुलता से घिरा रहता है। पर सच्चा वीर निराकुल और निर्वैर होता है। उसे न किसी पर विजय प्राप्त करना शेष रहता है और न उस पर कोई विजय प्राप्त कर सकता है । वह सदा समताभाव-वीतरागभाव मे विचरण करता है। उसे अपनी वीरता को प्रकट करने के लिए किन्ही बाहरी साधनो का आश्रय नहीं लेना पड़ता। अपने तप और संयम द्वारा ही वह वीरत्व का वरण करता है । जैनधर्म वीरों का धर्म जैनधर्म के लिए आगम ग्रन्थो मे जो नाम आये हैं, उनमे मुख्य हैंजिनधर्म, अर्हत् धर्म, निर्ग्रन्थ धर्म और श्रमण वर्म। ये सभी नाम वीर भावना के परिचायक है । 'जिन' वह है जिसने अपने आन्तरिक विकारो
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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