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________________ श्रेणिक के बीच हुए वार्तालात मे अनाथता का प्रेरक वर्णन किया गया है । गजा श्रेणिक मुनि से कहते हैं मेरे पास हाथी, घोड़े, मनुष्य, नगर, अन्त पुर तथा पर्याप्त द्रव्यादि समृद्धि है। सब प्रकार के काम भोगो को मैं भोगता हूँ और सव पर मेरी आज्ञा चलती है, फिर मैं अनाथ कैसे ? इस पर मुनि उत्तर देते हैं सब प्रकार की वाह्य भौतिक सामग्री, मनुष्य को रोगों और दुखो से नही बचा सकती। क्षमावान और इन्द्रिय निग्रही व्यक्ति ही दुःखो और रोगो से मुक्त हो सकता है। आत्मजयी व्यक्ति ही अपना और दूसरो का नाथ है जो सहस्स सहस्साण, सगामे दुज्जए जिणे। एग जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो।' एक पुरुष दुर्जय सग्राम मे दस लाख सुभटो पर विजय प्राप्त करता है और एक महात्मा अपनी आत्मा को जीतता है। इन दोनों मे उस महात्मा की विजय ही श्रेष्ठ विजय है। आदर्श वीरता का उदाहरण क्षमावीर है। क्षमा पृथ्वी को भी कहते है । जिस प्रकार पृथ्वी बाहरी हल चल और भीतरी उद्वेग को समभावपूर्वक सहन करती है, उसी प्रकार सच्चा वीर शरीर और आत्मा को अलग-अलग समझता हुआ सब प्रकार के दुखो और कष्टों को ममभाव पूर्वक सहन करता है। सच तो यह है कि उसकी चेतना का स्तर इतना अधिक उन्नत हो जाता है कि उसके लिए वस्तु, व्यक्ति और घटना का प्रत्यक्षीकरण ही बदल जाता है। तब उसे दु.ल, दु.ख नही लगता, मुख, सुख नहीं लगता। वह सुख-दुख से परे अक्षय, अव्यावाघ अनन्त आनन्द मे रमण करने लगता है। वह क्रोध को क्षमा से, मान को मदता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोप से जीत लेता है उसमेण हणे कोह, मारण मद्दवया जिणे । माय चज्जभावेण, लोभ सतोसओ जिणे ॥२ यह कपाय-विजय ही श्रेष्ठ विजय है । क्षमावीर निर्भीक और अहिंसक होता है । प्रतिशोध लेने की क्षमता होते हुए भी वह किसी से १-उत्तराध्ययन ६/३४ २–दशवकालिक ८/२६ ६५
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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