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________________ अर्थात् श्रमण सर्प, पर्वत, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्षपक्ति, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है। . . .. ये सब उपमाएँ साभिप्राय दी गई है। सर्प की भांति श्रमण भी अपना कोई घर (बिल) नही बनाते। पर्वत की भांति ये परीषहो और उपसर्गों की आधी से डोलायमान नहीं होते । अग्नि की भाति ज्ञान रूपी इन्धन से ये तृप्त नहीं होते । समुद्र की भाति अथाह ज्ञान को प्राप्त कर भी ये मर्यादा का अतिक्रमण नही करते। आकाश की भाति ये स्वाश्रयी, स्वावलम्बी होते हैं, किसी के अवलम्बन पर नहीं टिकते । वृक्ष की भाति समभावपूर्वक दुख-सुख को सहन करते हैं। भ्रमर की भाति किसी को बिना पीडा पहुँचाये शरीर-रक्षण के लिए आहार ग्रहण करते हैं । मृग की भाति पापकारी प्रवृत्तियो के सिंह से दूर रहते है। पृथ्वी की भाति शीत, ताप, छेदन, भेदन आदि कष्टो को समभावपूर्वक सहन करते हैं। कमल की भॉति वासना के कीचड और वैभव के जल से अलिप्त रहते है। सूर्य की भाँति स्वसाधना एव लोकोपदेशना के द्वारा अज्ञानानन्धकार को नष्ट करते है। पवन की भाँति सर्वत्र अप्रतिबद्ध रूप से विचरण करते है । ऐसे, श्रमणो का वैयक्तिक स्वार्थ हो ही क्या सकता है ? ये श्रमण पूर्ण अहिंसक होते हैं। षट्काय (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और' त्रसकाय) जीवो की रक्षा करते है। न किसी को मारने की प्रेरणा देते है और न जो प्राणियो का वध करते है, उनकी अनुमोदना करते हैं । इनका यह अहिंसा प्रेम अत्यन्त सूक्ष्म और गभीर होता है । ये अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के उपासक होते है। किसी की वस्तु बिना पूछे नही उठाते । कामिनी और कचन के सर्वथा त्यागी होते है। आवश्यकता से भी कम वस्तुओ की सेवना करते हैं । सग्रह करना तो इन्होने सीखा ही नही । ये मनसा, वाचा, कर्मणा किसी का वध नही करते, हथियार उठाकर किसी अत्याचारीअन्यायी राजा का नाश नहीं करते। लेकिन इससे उनसे लोक सग्रही रूप मे कोई कमी नही आती। भावना की दृष्टि से तो उसमे और वैशिष्ट्य आता । है । ये श्रमण पापियो को नष्ट कर उनको मौत के घाट नही उतारते वरन् उन्हे आत्मबोध और उपदेश देकर सही मार्ग पर लाते है। ये पापी को मारने मे नही, उसे सुधारने मे विश्वास करते है। यही कारण है कि ५२
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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