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________________ 'श्रमण' के लिए शमन, समन, समण आदि शब्दो का भी प्रयोग होता है। उनके मूल मे भी लोक सग्राहक वृत्ति काम करती रही है । लोक सग्राहक वृत्ति का धारक सामान्य पुरुष हो ही नहीं सकता। उसे अपनी साधना से विशिष्ट गुणो को प्राप्त करना पडता है । क्रोधादि कषायो का शमन करना पडता हैं, पाँच इन्द्रियो और मन को वशवर्ती बनाना पडता है, शत्रु-मित्र तथा स्वजन-परिजन को भेद भावना को दूर हटाकर सबमे समान मन को नियोजित करना पडता है । समस्त प्राणियो के प्रति समभाव की धारणा करनी पड़ती है । तभी उसमे सच्चे श्रमण-भाव का रूप उभरने लगता है। वह विशिष्ट साधना के कारण तीथंकर तक बन जाता है । ये तीर्थकर तो लोकोपदेशक ही होते है । ये साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चार तीर्थों की स्थापना करते हैं। इन्हे चतुर्विध सघ कहा गया है । सघ एक प्रकार का धार्मिक-सामाजिक संगठन है जो प्रात्मसाधना के साथ-साथ लोक-कल्याण का पथ प्रशस्त करता है। 'नन्दीसूत्र' की पीठिका मे सघ को नगर, चक्र, रथ, कमल, चन्द्र, सूर्य, समुद्र और पर्वत इन पाठ उपमाओ से उपमित करते हए नमन किया गया है। सघ ऐसा नगर है जिसमे सद्गुण और तप रूप अनेक भवन हैं, विशुद्ध श्रद्धा की सडकें हैं । ऐमा चक्र है जिसकी धुरा सयम है और सम्यक्त्व जिसकी परिधि है । ऐसा रथ है जिस पर शील की पताकाएँ फहरा रही हैं और तप-सयम रूप घोडे जुते हुए हैं । ऐसा कमल है जो सासारिकता से उत्पन्न होकर भी उससे ऊपर उठा हुआ है । ऐसा चन्द्र है जो तप-सयम रूप मृग के लाछन से युक्त होकर सम्यक्त्व रूपी चादनी से सुशोभित है । ऐसा सूर्य है जिसका ज्ञान हो प्रकाश है । ऐसा समुद्र है जो उपसर्ग और परीपह से अक्षुब्ध और धैर्य आदि गुणो से मडित-मर्यादित है । ऐसा पर्वत है जो सम्यग्दर्शन रूप वज्रपीठ पर स्थित है और शुभ भावो की सुगन्ध से प्राप्लावित है। चतुर्विध संघ के प्रमुख अग 'श्रमण' को भी बारह उपमाओ से उपमित किया गया है उरग गिरि जलण सागर महतल तरुगण समाय जो होइ । भ्रमर मिय धरणि जलरुह, रवि पवरण समाय सो समणो ।।
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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