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________________ जिसकी प्रात्मा सभी प्रकार के विकारो से मुक्त हो गई है जो शुद्ध, बुद्ध, निर्मल और प्रखण्ड आनन्दधाम है वही हमारे लिए परम आराध्य है । महान् आध्यात्मयोगी आनन्दघन ने कहा है-उस परम तत्त्व को चाहे राम के नाम से कोई सम्बोधित करे, चाहे रहमान के नाम से, चाहे कृष्ण के नाम से या महादेव के नाम से, चाहे पार्श्वनाथ के नाम से, चाहे ब्रह्मा के नाम से, किन्तु वह महा चैतन्य स्वय ब्रह्म स्वरूप ही है राम कही रहमान कही कोउ, कान्ह कहौ महादेव री। पारसनाथ कही कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वमेव री॥ मिट्टी का रूप तो एक ही है किन्तु पात्र भेद से अनेक नाम कहे जाते हैं तथा-यह घड़ा है, यह कुडा है आदि, उसी प्रकार इस परम तत्व के पृथक्-पृथक् भाग कल्पना मे किये गये है, किन्तु वास्तव मे वह तो अखण्ड स्वरूप ही है भाजन मेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कल्पनारोपित, आप अखण्ड सरूप री ।। जो निज स्वरूप मे रमरण करे उसे राम कहना चाहिए, जो प्राणी मात्र पर रहम (दया) करे उसे रहमान । जो ज्ञानावरणादि कर्मों को कृश अर्थात् नष्ट करे उसे कृष्ण कहना चाहिए और जो निर्वाण प्राप्त करे उसे महादेव । अपने प्रात्म स्वरूप को जो स्पर्श करे उसे पार्श्वनाथ कहना चाहिये और जो चैतन्य आत्म-शुद्ध रूप सत्ता को पहचाने, वह ब्रह्मा है। यह परम तत्व निष्कर्म कर्म उपाधि से रहित), ज्ञाता, द्रष्टा और चैतन्यमय है निज पद रम राम सो कहिये, रहम करै रहमान री। करणे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री।। परसे रूप सो पारस कहिये, ब्रह्म चिन्है सो ब्रह्म री। - इह विध साध्यो आप 'पानदघन', चेतनमय निष्कर्म री ।। . इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनदर्शन में किसी व्यक्ति, वर्ण, जाति, मत या सम्प्रदाय के लिये कोई स्थान नहीं है । यहाँ महत्त्व है केवल आत्मगुणो का। जैन कवियो ने काव्य-रूपो के क्षेत्र में भी कई नये प्रयोग किये। उसे सकीर्ण परिधि से बाहर निकाल कर व्यापकता का मुक्त क्षेत्र दिया। साहित्यशास्त्रियो द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध-मुक्तक को चली आती हुई
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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