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________________ हैं, वे जैन साहित्य मे उचित सम्मान के अधिकारी वने हैं । इसका कारण शायद यह रहा कि जैन साहित्यकार अनार्य भावनाओ को किसी प्रकार को ठेस नही पहुँचाना चाहते थे । यही कारण है कि वासुदेव के शत्रुओ को भी प्रति- वासुदेव का उच्च पद दिया गया है । नाग, यक्ष आदि को भी अनार्य न मान कर तीर्थंकरो का रक्षक माना है और उन्हे देवालयो मे स्थान दिया है | कथा - प्रबन्धो मे जो विभिन्न छन्द और राग-रागनियाँ प्रयुक्त हुई हैं उनकी तर्जे वैष्णव साहित्य के सामजस्य को सूचित करती हैं । कई जैनेतर संस्कृत और डिंगल ग्रंथो की लोकभापात्रो मे टीकाएँ लिख कर भी जैन विद्वानो ने इस सास्कृतिक विनिमय को प्रोत्साहन दिया है । जैन धर्म अपनी समन्वय भावना के कारण ही सगुरण भक्ति के झगड़े में नही पडा । गोस्वामी तुलसीदाम के समय इन दोनो भक्ति धाराश्रो मे जो नमन्वय दिखाई पडता है, उसके वीज जैन भक्तिकाव्य मे आरम्भ मे मिलते हैं । जैन दर्शन मे निराकार आत्मा ( सिद्ध) और वीतराग साकार भगवान् (अरिहन्त ) के स्वरूप मे एकता के दर्शन होते हैं । पच परमेष्ठी नमस्कार महामंत्र ( णमो अरिहतारण, णमो सिद्धाण णमो आयरियाण, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूण) मे सगुण और निर्गुण भक्ति का कितना मुन्दर मेल बिठाया है । अरिहन्त सकल परमात्मा सगुण, साकार हैं । सिद्ध निष्कल परमात्मा निर्गुण निराकार हैं । एक ही मंगलाचरण मे इस प्रकार का समभाव अन्यत्र देखने को नही मिलता । } } यह समन्वय भावना अनुपम उदारता की फलश्रुति है | नमस्कार महामंत्र किसी वैयक्तिक निष्ठा का प्रतिपादक न होकर गुणनिष्ठा का जीवन्त प्रतीक है | इनमे जैनधर्म के सर्वाधिक पूजनीय, वन्दनीय, महनीय २४ तीर्थंकरो मे से किसी का नाम निर्देश नही है । व्यक्ति विशेष को नम - स्कार न करके गुणो को नमन किया गया है । जो क्रोध, अहंकार आदि विकारो से मुक्त हो गये हैं उन अरिहन्तो को नमस्कार है, जिन्होंने साधना का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है उन सिद्धों को नमस्कार है, जो शुद्ध ग्राचार मे आदर्श हैं उन आचार्यों को नमस्कार है, जो स्वय ज्ञानी बनकर विद्या दान करने मे कुशल हैं उन उपाध्यायो को नमस्कार है और जो साधना के शुद्ध मार्ग पर गतिशील हैं, विश्व के उन सभी साधुओ को नमस्कार है । ve
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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