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________________ है । इसीलिए महावीर ने श्रावक के बारह व्रतो मे जो व्यवस्था दी है वह एक प्रकार से स्वैच्छिक स्वामित्व विसर्जन और परिग्रह मर्यादा, सीलिंग की व्यवस्था है । आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति के उपार्जन के स्रोत और उपभोग के लक्ष्य मर्यादित और निश्चित हो । बारह व्रतो मे तीसरा अस्तेय व्रत इस बात पर बल देता है कि चोरी करना हो वर्जित नही है बल्कि चोर द्वारा चुराई गई वस्तु को लेना, चोर को प्रेरणा करना, उसे किसी प्रकार की सहायता करना, राज्य नियमो के विरुद्ध प्रवृत्ति करना, झूठा नाप-तोल करना, झूठा दस्तावेज लिखना, झूठी साक्षी देना, वस्तुग्रो मे मिलावट करना, अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे देना आदि सब पाप है । आज की बढती हुई चोर बाजारी, टैक्स चोरो, खाद्य पदार्थों मे मिलावट को प्रवृत्ति आदि सब महावीर की दृष्टि से व्यक्ति को पाप की ओर ले जाते हैं और समाज मे प्रार्थिक विषमता के कारण बनते है । इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए पाचवे व्रत मे उन्होने खेत, मकान, सोना-चादी आदि जेवरात, धन-धान्य, पशु-पक्षी, जमीन-जायदाद आदि को मर्यादित, आज की शब्दावली में इनका सीलिंग करने पर जोर दिया है और इच्छाओ को उत्तरोत्तर नियत्रित करने की बात कही है । छठे व्रत मे व्यापार करने के क्षेत्र सीमित करने का विधान है । क्षेत्र और दिशा का परिमाण करने से न तो तस्कर वृत्ति को पनपने का अवसर मिलता है और न उपनिवेशवादी वृत्ति को बढावा मिलता है। सातवे व्रत मे अपने उपयोग मे आने वाली वस्तुओ की मर्यादा करने की व्यवस्था है । यह एक प्रकार का स्वैच्छिक राशनिंग सिस्टम है । इससे व्यक्ति अनावश्यक संग्रह, से बचता है और संयमित रहने से साधना की ओर प्रवृत्ति बढती है । इसी व्रत मे अर्थार्जन के ऐसे स्रोतो से बचते रहने की बात कही गयी है जिनसे हिंसा बढती है, कृषि उत्पादन को हानि पहुचती है और असामाजिक तत्त्वो को प्रोत्साहन मिलता है । भगवान महावीर ने ऐसे व्यवसायो को कर्मादान की सज्ञा दी है और उनकी सख्या पन्द्रह बतलायी है । आज के सन्दर्भ मे इगालकम्मे - जंगल मे आग लगाना, वरणकम्मे – जगल श्रादि कटवा कर बेचना, असईजणपोसणया - असयति जनो का पोषण करना अर्थात् असामाजिक तत्त्वो को पोषण देना, आदि पर रोक का विशेष महत्त्व है । 1 २४
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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