SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और सब प्रकार के साधनामागियो के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए । उन्होने पन्द्रह प्रकार से सिद्ध होना बतलाया-तीर्थ सिद्ध, अतीर्थ सिद्ध, तीर्थङ्कर सिद्ध, अतीर्थङ्कर सिद्ध, स्वयबुद्ध सिद्ध, प्रत्येक बुद्ध सिद्ध, बुद्धबोधित सिद्ध, स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपु सकलिंग सिद्ध, स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध, गृहस्थलिंग सिद्ध, एक सिद्ध, अनेक सिद्ध (पन्नवणा पद १, जीव प्रज्ञापन प्रकरण) परमात्म-सिद्धि के लिये विशेष लिंग, विशेष वेश, विशेष गुरु आदि की व्यवस्था को भगवान् महावीर ने चुनौती दी। उन्होने कहा दूसरे के उपदेश के बिना स्वयमेव बोध प्राप्त कर (स्वयबुद्ध सिद्ध) परमात्मा बना जा सकता है । स्त्री और नपु सक भी (स्त्रीलिग सिद्ध, नपु सक लिंग सिद्ध) सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। लिंग या आकृति की सिद्धि प्राप्ति मे कोई बाधा नही है । गृहस्थ के वेश मे रहा हुआ और महावीर द्वारा दीक्षित न होने वाला अन्य परिव्राजक भी सिद्धि प्राप्त कर सकता है। उनके धर्म सघ मे कुम्हार, माली, चाण्डाल आदि सभी वर्ग के लोग थे । उन्होने चन्दनबाला साध्वी (स्त्री) को अपने सघ को प्रमुख बनाकर नारी जाति को सामाजिक स्तर पर ही नही आध्यात्मिक साधना के स्तर पर भी पूर्ण स्वतत्रता का भान कराया। यही नही, जैन श्वेताम्बर परम्परा मे सर्व प्रथम मोक्ष जाने वाली भगवान् ऋषभदेव की माता मरुदेवी (स्त्री) मानी गई है। इससे भी आगे १९वे तीर्थङ्कर मल्लिनाथ स्त्री माने गये है । तीर्थकर विशिष्ट केवलज्ञानी होते है जो न केवल परमात्म दशा प्राप्त करते हैं वरन् लोक कल्याण के लिए साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप तीर्थ की भी स्थापना करते हैं। गृहस्थो के लिए महावीर ने आवश्यकतानो का निषेध नही किया। उनका बल इस बात पर था कि कोई आवश्यकता से अधिक सचय-सग्रह न करे । क्योकि जहा सग्रह है, आवश्यकता से अधिक है, वहा इस बात से इन्कार नही किया जा सकता कि कही आवश्यकता भी पूरी नहीं हो रही है । लोग दुःखी और अभावग्रस्त है । अत सब स्वतत्रतापूर्वक जीवनयापन कर सकें इसके लिए इच्छाओ का सयम आवश्यक है । यह सयमन व्यक्ति स्तर पर भी हो, सामाजिक स्तर पर भी हो और राष्ट्र व विश्व स्तर पर भी हो। इसे उन्होने परिग्रह की मर्यादा या इच्छा का
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy