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________________ [७४ जैन-दर्शन अन्य गृहस्थादिक धारण कर सकते हैं और न ये बाहर से जान पड़ते हैं । इसीलिये इनको अंतरंग-तप कहते हैं। इनमें से प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं, विनय के चार भेद हैं, वैयावृत्य के दस भेद हैं, स्वाध्याय के पांच भेद है, व्युत्सर्ग के दो भेद हैं और ध्यान के चार या सोलह भेद हैं। प्रायश्चित्त उसको प्रायश्चित्त र साधु लोगों का वित्त है। अथवा प्रायः शब्द का अर्थ अपराध है और चित्त शब्द का अर्थ शुद्धि है। अपराधों की शुद्धि करना प्रायश्चित्त है। अथवा प्रायः शब्दका अर्थ साधु वर्ग है । साधु लोगों का चित्त जिस काम में लगा रहे उसको प्रायश्चित्त कहते हैं। यह प्रायश्चित्त प्रमाद जन्य दोषों को दूर करने के लिये, भावों की शुद्धता रखने के लिये शल्य रहित तपश्चरण करने के लिये, मर्यादा बनाये रखने के लिये, संयम की बहता के लिये और आराधनाओं के पालन करने के लिये किया जाता है । इसके नौ भेद हैं । यथा श्रालोचना-जिस समय गुरु एकांत स्थान में प्रसन्नचित्त विराजमान हों उस समय जो शिप्य उन गुरुसे दश दोपों से रहित अपने प्रमादजन्य दोपों को निवेदन करता है उसको आलोचना कहते हैं। दश दोप ये हैं:-कुछ उपकरण भेट कर आलोचना करना, मैं रोगी या दुर्बल हूं यह कहकर अालोचना करना, जो दोप किसीने नहीं देखे हैं उनको छिपा कर देखे हुए दोप कहना, स्थूल दोप कहना, महा दोपों को न कहकर उनके अनुकूल दोप कहना,
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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