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________________ जैन-दर्शन ७३ ] रसों के त्याग करने से इन्द्रियों का दमन होता है, तेज की हीनता होती है तथा संयम को विघात करने वाले द्रव्य वा परिणामों की. सर्वथा निवृत्ति या त्याग हो जाता है । इसीलिये इससे संयम की. अतिशय वृद्धि होती है और कर्मों की विशेष निर्जरा होती है । विविक्त-शय्यासन - विविक्त शब्द का अर्थ एकान्त स्थान है । एकान्त स्थान में शय्या आसन रखना विविक्त - शय्यासन है एकांतमें शय्या आसन रखने में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन होता है, उत्कृष्ट स्वाध्याय होता है और उत्कृष्ट ही ध्यान होता है । तथा इन तीनों से विशेष कर्मों की निर्जरा होती है । कायक्लेश-जान बूझकर इन्द्रियों को विशेष दमन करने के लिये शरीरको क्लेश पहुँचाना कायक्लेश तप है । वह अनेक प्रकार से होता है । यथा मौन धारण करना, गर्मी के दिनों में पर्वतपर ध्यान धारण करना, जाडे के दिनों में नदी के किनारे या मैदान में ध्यान लगाना तथा वर्षा के दिनों में वृक्ष के नीचे ध्यान धारण करना या खडे होकर सामायिक या ध्यान लगाना आदि । इस तपश्चरण के करने से विषय सुखों से अत्यंत निवृत्ति होती है, शांति या संतोष की वृद्धि होती है और धर्म की या मोक्ष मार्ग की प्रभावना होती है, तथा इसलिये इससे विशेष कर्मोंकी निर्जरा होती है । इस प्रकार ये छह बाह्य तप हैं । अंतरंग-तप अंतरंग तप के भी छह भेद हैं- प्रायश्चित, विनयः वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । इन छहों प्रकारके तप को न तो 1
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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