SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन हो, जो प्रमाद रहित हों, अत्यन्त शक्तिशाली हों, फर्मों को थे । निर्जरा करने वाले हों, घोर तपश्चरण करने वाले हों तथा सामायिक के समय को छोडकर शेष समय में कम से कम चार कोस प्रतिदिन गमन करते हों उनके यह परिहारविशुद्धि चारित्र होता है । ऐसे मुनियों के ऐसी ऋद्धियां प्रकट हो जाती हैं कि जिनसे - गमन करते समय सूक्ष्म या स्थूल किसी जीवको उनसे वाधा नहीं होती । इसीलिये इससे कर्मों की अधिक निर्जरा होती है। [ ७० सूक्ष्मसांपराय - गुणस्थानों का स्वरूप आगे लिखेंगे। उनमें से 'दशवे गुणस्थान तक अनेक प्रकृतियों का नाश हो जाता है तथा क्रोध, मान, मायां और स्थूल लोभ का भी नाश हो जाता है । दशवे गुणस्थान में अत्यन्त सूक्ष्म लोभ रह जाता है और वह भी मोक्ष प्राप्ति का लोभ है | ध्यान करते करतें वे मुनि कर्म प्रकृतियों का नाश करते हुए जब दशवे गुणस्थान में पहुँच जाते हैं तथ उनके वह सूक्ष्मसांपराय नाम का चरित्र होता है। इसमें सूक्ष्म लोभ को छोडकर शेष समस्त कपायें नष्ट हो जाती हैं। इसलिये इस चारित्र के द्वारा कर्मों का विशेष संवर होता है । ७ः यथाख्यांत-— मोहनीय कर्म के नष्ट होने से 'आत्माका "जैसा शुद्ध स्वभाव प्रकट हो जाता है वैसा ही शुद्ध स्वभाव प्रकट हो जाना यथाख्यात चारित्र है । अथवा श्रात्मांका जैसा शुद्ध स्वरूप है वैसा प्रकट हो जाना' यथाख्यात चारित्र है । अथवा इसका दूसरा नाम अथाख्यार्त भी है । अथ' शब्द का अर्थ प्रारंभ होता है। जो चारित्र मोहनीय कर्म के सर्वथा नाश होने पर प्रकट होती है उसको था
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy