SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जननांन हैं. परम पूज्य होते हैं और अरहंत नायु वर्ग के परम भक्ष होते हैं, से उन सावुत्रों के भी बोई वृद्धि प्रान नहीं होती है तथापि "इतने दिन तक घोर तपश्चरण करने पर भी मुझे कोई द्धि प्रात नहीं हुई है, तात्री लोगों को ऋडियां प्रत होती हैं ऐसा जो शास्त्रों में लिखा है वह सब मिथ्या है, फिर चरण करना व्यर्थ है। इस प्रकार के नुनिराज मा विश्वन नहीं करते, न अपने मन में किसी प्रचार का खेद करते है। इस प्रकार के मुनिराज अदर्शन परीपह को सहन करते हैं ! इन परीपट्टों के सहन करने से शौच यान्त्र जल जाता है न्या तपश्चरण के द्वारा संचिन कनों को निर्जरा होकर शीघ्र ही मोन की ग्रामि हो जाती है। मारित्र चारित्र मोहनीय कर्म के इव, वयोशम या उपशम होने पर जो पालाची विशुद्धि होती है उसको चारित्र कहते हैं । अथवा समन्त प्राणियों की रक्षा करना और समन्त इन्द्रियों को निग्रह करना चारित्र है । उस चारित्र के पांच भेद है ! सामाचित्र. छेदो. पन्याना, परिवारविशुद्धि, सुचनसांपराय और चयाख्यान । यह पांची प्रचारका चारित्र संघरका कारण है नया इनमें चरोत्तर आत्मा की विगुद्धि अधिक अधिक होती जाती है। संजन से इनन्ना स्वल्य इस प्रकार है सामायिक-किसी नियत समय तक समस्त पायरूप योगांचा त्याग कर देना सामायिक है । मुनिराज प्रातःकाल, मध्याह्न कन्न
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy