SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - जैन-दर्शन एक ग्रास हाथ पर रखता जाता है और वे मुनि उसे, देख शोधकर ग्रहण कर लेते हैं। यदि मध्य में कोई.अंतराय आजाता है या और कोई दोप आजाय तो वे आहारका त्याग कर देते हैं। इस प्रकार बत्तीस. अंतराय और छयालीस दोष टालकर मुनि आहार करते हैं तथा दिन में एक बार ही ग्रहण करते हैं । इस शरीर से तपश्चरण करने के लिये और तपश्चरण के लिये शरीर को टिकाने के लिये आहार आवश्यक है । इसीलिये वे आहार ग्रहण करते हैं । जिस प्रकार भ्रमर फूलों से सुगंध ले जाता है. परंतु: फूलको दुःख नहीं पहुंचाता उसी प्रकार वे मुनिराज. आहार. ग्रहण करते हैं । जिस प्रकार गाडीको चलाने के लिये..तेल.से. ओंगते हैं उसी प्रकार शरीर को स्थिर रखने के लिये आहार ग्रहण करते हैं अथवा इस उदर रूपी गढेको भरने के लिये नीरस भोजन ग्रहण कर लेते है। अथवा उदर रूपी अग्निको शांत करने के लिये और आत्म-गुणों की रक्षा के लिये आहार ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार गाय चारा डालने वाले की वेप भूषा या सुन्दरता को नहीं देखती:उसो. प्राकार मुनि. भी आहार. ग्रहण करते समय किसी को नहीं देखते। इस प्रकार शुद्धता पूर्वक आहार ग्रहण करना एपणा समिति: है। मुनि राज एक ही बार भोजन पान करते हैं फिर दुबारा पानी भी नहीं पीते । कमंडलु में जो जल ले जाते हैं वह गर्म किया हुआ ले जाते हैं और वह शौच' आदि शुद्धि के ही काम आता है। · आदाननिक्षेपणसमिति - मुनिराज.जब कभी शास्त्र या कमंडलु उठावगे या रखेंगे तो उसे देखकर तथा पोछी से शोधकर ही
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy