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________________ RAJune - - - - जैन-दर्शन प्रार्थना करते हैं कि-महाराज यहां ही ठहरिये, श्राहार पानी शुद्ध है । यदि उन मुनि के कोई विशेष प्रतिज्ञा नहीं हुई या प्रतिज्ञा की पृत्ति हो गई तो वे ठहर जाते हैं । तब वह श्रावक उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करता है और फिर प्रार्थना करता है कि महाराज घर में चलिये । इस प्रकार कहकर वह श्रावक आगे चलता है और वे मुनि उसके पीछे चले जाते हैं। वहां जाकर वह श्रावक उनको किसी ऊंचे स्थान पर (पाटा चौकी या कुरसी पर) विराजमान होने के लिये प्रार्थना करता है। ऊंचे स्थान पर बैठः जाने के अनंतर वह श्रावक उनके चरण-कमल धोता है और उम. पादोदकको. पादप्रक्षालन के जलको अपने मस्तक पर लगाता है। तदनंतर वह श्रावक उन मुनिराजकी जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल इन पाठों द्रव्यों से या इनके बने हुए अर्ध्य से पूजा करता है। फिर वह श्रावक उन मुनिराज से प्रार्थना करता है कि हे भगवान् ! मेरा मन शुद्ध है, वचन शुद्ध है काय शुद्ध है तथा भोजन पार भी सव शुद्ध है। आप भोजन शाला में पधारिये । तब वे मुनिराज भोजन शाला में या चौकाम-जाते हैं। वहां पर एक पाटा रक्खा रहता है उस पर खड़े हो जाते हैं। मुनिराज खडे होकर ही आहार लेते हैं... इसका भी अभिप्राय यह है कि जब तक इस शरीर में खड़े होने की शक्ति है तब तक ही श्राहार लेते हैं। यदि खडे होने की शक्ति न रहे तो श्राहारका: त्यागकर समाधि धारण कर लेते हैं। मुनिराज किसी पात्र में भोजन नहीं करते किंतु करपात्र में ही भो. न करते हैं। श्रावक-एक
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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