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________________ [20 जैन-दर्शन और मन:पर्ययज्ञान ये दोनों ज्ञान एक देश प्रत्यक्ष हैं । केवलज्ञान - केवल आत्मा के द्वारा समस्त पदार्थ और प्रत्येक पदाथ की जनतानंत पर्यायों को जो एक साथ प्रत्यक्ष जानता हूँ उसको केवल ज्ञान कहते हैं । केवल ज्ञान होने पर यह जीव सर्वज और मदर्शी हो जाता है तथा वहीं जिन वा जितेन्द्र देव कहलाना है । ये पांचों ही ज्ञान के हो होते हैं, इसीजिये ये पांचों ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं । मिथ्याष्टी के मतिज्ञान, श्रुत ज्ञान और विज्ञान भी होता है संतु वह सब मिथ्याज्ञान कहलाना है। मिथ्याज्ञान संसारका कारण होता है। ६ - सम्पक चारित्र राग दूर करने के लिये समस्त पापों का त्याग कर देना सस्यक् चारित्र है | अथवा पापों के दूर करने के लिये या पापों से बचने के लिये जो जो आचरण किये जाते हैं - उन सबको चारित्र कहते हैं । इस संसार में जितने पाप होते हैं वे सत्र राग द्वेष के कारण ही से होते हैं । जब राग द्वेष छू जाते हैं त पाप अपने आप छूट जाते हैं । श्रतएव राग हो को दूर करना सबसे मुख्य कर्तव्य है । राग द्वेष को या मोहको दूर किये बिना चात्रि कभी नहीं हो सकता । वास्तव में देखा जाय तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित सम्यक् चारित्र ही साक्षात् सोचका कारण है । .
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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