SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - जैन-दर्शन - इसके सिवाय अव्यक्त पदार्थों का भी ज्ञान होता है। जैसे किसी ने किसी को चार बार बुलाया; परंतु उसने सुना नहीं। पांचवीं बार सुना और फिर वह विचार करने लगा-यह शब्द सुनाई तो पड़ा था। इस प्रकार वह उसका पहले का चार बारका बुलाना अव्यक्त है । ऐसा यह अव्यक्त पदार्थ का ज्ञान चक्षु और मनको छोड़कर. केवल चार इन्द्रियों से उत्पन्न होता है तथा ऐसा यह अव्यक्त पदार्थका ज्ञान केवल अवग्रह रूप ही होता है । ईहा आवाय धारणा रूप नहीं होता। इसका भी कारण यह है कि स्पर्शन रसना घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियां तो पदार्थों को स्पर्शकर जानती हैं इसलिये उनसे जो ज्ञान होता है वह व्यक्त भी होता है और अव्यक्त भी होता है; परंतु चक्षु और मन ये दोनों इन्द्रियां पदार्थ से स्पर्श नहीं करतीं। इसलिये इनसे जो ज्ञान होता है वह व्यक्त ही होता है। अतएव अव्यक्त पदार्थका ज्ञान चतु और मनसे नहीं होता । तथा अव्यक्त पदार्थका ज्ञान अवग्रह रूप ही होता है और पहले लिखे अनुसार बारह प्रकारके पदार्थोंका होता है । ऐसे ज्ञान को व्यंजनावग्रह कहते हैं। ऐसे इस व्यंजनावग्रह के अडतालीस भेद हो जाते हैं । दोसौ अठासी और अडतालीस मिलकर मति ज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं। यह मतिज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न होता है इसलिये परोक्ष कहलाता है । यद्यपि व्यवहार में इसको प्रत्यक्ष कहते हैं तथापि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है और यह मतिज्ञान आत्मो से न होकर इन्द्रियों के द्वारा होता है, इसलिये यह परोक्ष है। .
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy