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________________ जैन- दशन २५ ] स्नान से आत्मा की पवित्रता मानते हैं, पर्वत से गिरकर मरजाने में मुक्ति मानते हैं या अग्नि में जलकर मरजाने को मुक्ति मानते हैं वह सव लोक मूढ़ता है । क्योंकि इनमें आत्मा का कल्याण करने । वाले कोई गुण नहीं हैं । अतएव इनकी भक्ति पूजा करना सब लोकमूढता है । सम्यग्दृष्टी पुरुष आत्मगुणों की पूजा करता है और वह उनके गुण अपने आत्मा में प्राप्त करने के लिये करता है । इसलिये वह ऐसी लोक मूढताका सर्वथा त्याग करदेता है । यह सम्यग्दर्शन का उन्नीसवां गुण है । 3 आगे वह अनायतनों के त्याग को कहते हैं । आयतन शब्दका अर्थ स्थान है । जो धर्म साधन के स्थान होते हैं उनको धर्मायतन कहते हैं तथा जो धर्म के आयतन न हों उनको अनायतन कहते हैं । ऐसे अनायतन छह ' है । भगवान जिनेन्द्र देवको देव कहते हैं तथा वीतराग सर्वज्ञ ऐसे श्री जिनेन्द्र देवका निरूपण किया हुआ धर्म-धर्म कहलाता है और वीतराग दिगम्बर अवस्था को धारण करने वाले मुनि गुरु कहलाते हैं। ये तीनों ही धर्म के आयतन हैं, धर्म के साधन हैं । जिनेन्द्र देव और दिगम्बर मुनियों की पूजा भक्ति करने से उनके गुणों में अनुराग बढ़ता है और धर्मका पालन करने से आत्माका कल्याण होता है । इसलिये ये तीनों ही धर्म के स्थान या धर्मायतन हैं । इसी प्रकार जो जीव इन तीनों को मानते हैं; इन्हीं की पूजा भक्ति करते हैं वे भी धर्म के स्थान या धर्मायतन कहलाते हैं। क्योंकि वे देव धर्म गुरु की पूजा भक्ति कर स्वयं अपने आत्माका कल्याण
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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