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________________ २४ ] जैन-दर्शन आत्माका कल्याण करने वाला दिगम्बर वीतराग मुनि ही धर्मगुरु हो सकता है । ऐसे गुरुको छोड़कर शेष जितने भेषधारी जटाधारी, सिर मुंड, वस्त्रधारी, दंडी, त्रिदंडी, आदि गुरु कहलाते हैं वे धर्म गुरु कभी नहीं हो सकते। ऐसे कल्पित गुरु अपने आत्मा का भी कल्याण नहीं कर सकते फिर भला वे अन्य जीवों का कल्याण कैसे कर सकते हैं ? धर्मगुरु जब तक वीतराग और विषय वासनाओं से रहित नहीं होगा तब तक वह स्वपर कल्याण कभी नहीं कर सकता । यही समझकर सम्यग्दृष्टी पुरुष वीतराग दिगम्बर मुनि को ही गुरु मानता है । इनके सिवाय अन्य भेण्धारी गुरुओं की पूजा भक्ति वह कभी नहीं करता । इस प्रकार गुरु मृद्रताका त्याग कर वीतराग निर्बंथ गुरु में भक्ति करना सम्यग्दर्शनका अठारहवां गुण है। । तीसरी मूडताका नाम लोक मूडता है । अन्य अज्ञानी जीवों की अज्ञानता पूर्ण क्रियाओं को देखकर बिना समझे स्वयं करना लोक मूढता है । यह निश्चित सिद्धांत है कि जिनको पूजा या भक्ति हम करते हैं वह पूजा या भक्त उनके गुणों की प्राप्ति के लिये करते हैं तथा गुण वे ही कहलाते हैं जो आत्मा के कल्याण करने में काम आवें । देवकी पूजा भक्ति हम लोग उनकी वीतरागता और सर्वज्ञता गुणकी प्राप्ति के लिये करते हैं । वीतराग दिगम्बर मुनि की पूजा भक्ति उनकी वीतरागता, निर्मोहता, समस्त लालसाओं का त्याग आदि गुणों के लिये करते हैं । परन्तु जो लोग पत्थरों के ढेरको भी पूजते हैं, बालुओं के ढेर को भी पूजते हैं, नदी समुद्रके
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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