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________________ - [ ४४ जैन-दर्शन सकती क्योंकि वायु सदाकाल चलती रहती है । जैसे यहां की साधारण वायु चलती ही रहती है उसी प्रकार भूमियों को धारण करने वाली वायु भी बहने वाली है । जब भूमियों को धारण करने वाली वायु बहती रहती है तो फिर वे भूमियां भी नीचे को ओर गिरती रहेगी। ऐसा भू भ्रमण वादी कहता है परन्तु उसका यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि संसार में धारक वायु भी देखी जाती है । देखो बादलों में करोड़ों मन वा असंख्यात मन पानी भरा रहता है परन्तु इतने भारी बोझ को धारण करने वाले बादल वायु के आधार पर ही रहते हैं। यदि किसी भारी पदार्थ को धारण करने वाली धारक वायु अनादि हो तो फिर उसमें कोई किसी प्रकार का दोष नहीं पाता है और न कोई किसो प्रकार की हानि होती है। यही बात आगे दिखलाते हैं। भूमियों को धारण करने वाली वायु अनवस्थित नहीं है क्योंकि वह बहने वाली वा चलने फिरने वाली नहीं है। कदाचित् यह कहो कि भूमि को धारण करने वाली वायु चलने वाली नहीं है यह वात सर्वथा असंभव है क्योंकि कोई भी वायु चलने फिरने के स्वभाव से रहित नहीं है परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि बादलों को धारण करने वाली वायु भी दिखाई पडती ही है । कदाचित् यह कहो कि वादलों को धारण करने चाली वायु भी बहती हुई है इसलिये वह सदाकाल धारण नहीं कर सकती । संसार में सदाकाल धारण करने वाली वायुं कहीं नहीं दिखाई देती। परन्तु वादी का यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि सद काल धारण करने वाली वायु को आप लोग सादि मानते हो या
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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