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________________ जैन दर्शन २४२ ] ऊपर से गिरता है तो भारी होने के कारण नीचे की ओर ही गिरता है। उसी प्रकार चारों आर से रोकने वाले या श्रभिघात करने वाले समस्त पदार्थों का अभाव हो और उस अवस्था में कोई भी भारी पदार्थ अपने स्थान से गिरे ता वह भारी होने के कारण नीचे की ओर ही गिरता है । भ्रमण करती हुई पृथ्वी पर जो समुद्रादिक का पानी पडता है वह भी नीचे की ओर ही गिरेगा क्योंकि उसको रोकने वाला अथवा चारों | पुरुष ओर से अभिघात करने वाला कोई विशेष पदाथ नहीं का किया हुआ कोई यत्न भी ऐसा नहीं है जिससे वह जल नीचे की ओर न गिरकर सामने की ओर उसी पृथ्वी पर गिरे । कदाचित् यह कहो कि किसी मनुष्य के द्वारा फेंकी हुई गेंद सामने की ओर जाती है इसलिये तुम्हारा (जैनियों का ) हेतु व्यभिचारी वा सदोप है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि हमने तो यह कहा है कि किसी अभिघात करने वाले पदार्थ के अभाव होने पर भारी पदार्थ नीचे गिरता है | गेंढ़ जो सामने जातो है वह फेंकने वाले के अभिघात से (चोट वा बलसे) सामने जाती है । यदि फेंकने वाले का अभिघात न हो तो वह भी नीचे की ओर ही जायगी । इसलिये हमारा हेतु ठीक है व्यभिचारी नहीं है । कदांचित यह कहो कि हमने जो मिट्टी के ढेले का वा पत्थर के टुकडे का दृष्टांत दिया है वह साध्य साधन दोनों से रहित है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि पत्थर के टुकडे वा मिट्टी के ढेले में साधन भारीपन है सोढेले में है ही और नीचे की ओर गिरना साध्य है वह भी
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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