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________________ २३८ ] जैन-दर्शन भ्रमण को सूचित प्रतीति हो जाती है और इस प्रकार पृथ्वी के करने वाले समस्त हेतु विरुद्ध सिद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार भू भ्रमण के जितने कारण हैं उनमें अनुमानादिक द्वारा वाधित पक्षता का दोष आता है । तथा पृथ्वी के परिभ्रमण में कोई कारण नहीं है इसलिये भी पृथ्वी का परिभ्रमण नहीं हो सकता है । कदाचित् यह कहो कि कोई ऐसा ही विचित्र अट कारण है कि जिससे इस पृथ्वी का परिभ्रमण होता है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि पृथ्वी के परिभ्रमण में वायु का भ्रमण होना कारण नहीं हो सकता । इसका भी कारण यह है कि वायु का भ्रमण कभी भी नियमानुसार नहीं हो सकता। क्योंकि वायु का भ्रमण कभी किसी दिशा में और कभी किसी दिशा में होता रहता है। परिभ्रमण इच्छानुसार दिशा की ओर कभी नहीं हो सकता । इसलिये पृथ्वी का कदाचित् यह कहो कि प्राणियों के किसी अट (भाग्य) के वशीभूत होकर वायु का भ्रमण किसी नियत दिशा में हो सकता हे सो भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि कार्य की असिद्धि होने से उसके कारण की भी प्रसिद्धि मानी जाती है अर्थात् वायु का भ्रमण कभी भी इच्छानुसार नियंत दिशा में नहीं होता । इसलिये कारण भूत किसी की सिद्धि भी नहीं हो सकती । संसार में सुख या दुःख आदि कार्य प्रसिद्ध हैं उनमें किसी प्रकार का विवाद भी नहीं है तथा व्यभिचार दोप को कहने वाला कोई दृट कारण भी नहीं है। इसलिए सुख वा दुःख रूप कार्य में
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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