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________________ [ २३२ - जन-दशन यदि किसी में हानि लाभ हो तो हर्प विपाद कुछ नहीं करना चाहिये, क्योंकि हानि लाभ होना भाग्य के श्राधीन है । कर्त्तव्य अपने अधीन है । तदनन्तर मुनित्रत धारण करने का मेरा कब समय आवेगा इस प्रकार चितवन कर तथा जो कुछ हुआ है उसीमें सन्तोप धारण कर भोजन करने के लिये घर जाना चाहिये । भोजन ऐसे करने चाहिये जिससे सम्यक्त्व और व्रतों में किसी प्रकार का दोप न आवे तथा शरीर का स्वास्थ्य न विगडे । यदि कोई कुटुंबी वा साधर्मी जन अपने विवाह आदि में निमंत्रण दे तो उनके घर भी भोजन करना चाहिये, परन्तु रात्रि में वना अन्न नहीं खाना चाहिये और हीन पुरुपों के साथ ऐसा व्यवहार भी नहीं रखना चाहिये। श्रावकों को उद्यानभोजन नहीं करना चाहिये, पहलवान वा पशुओं का युद्ध न कराना चाहिये न देखना चाहिये, पुष्प इकटे नहीं करने चाहिये,शृंगार की भावना से जल क्रीडा नहीं करनी चाहिये, होली खेलना, परिहास करना, द्रव्य भाव हिंसा के साधन कौमुदी महोत्सव देखना, नाटक देखना, चित्रपट देखना, रास . क्रीडा देखना, नाच गान आदि सब का त्याग कर देना चाहिये। तदनन्तर स्नानकर शुद्ध वस्त्र पहन कर भगवान की पूजा करना चाहिये। उस समय विधि पूर्वक पंचामृताभिषेक करना चाहिये । इसके सिवाय गुरु महाराज के उपदेश से सिद्धचक्र का पूजन करना चाहिये, श्रुत पूजन करना चाहिये वा आचार्यों के
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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