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________________ - - - - - - - - - - - - जैन-दर्शन २१५] की थी। जव भरत और ऐरावत में दिन रहता है तब विदेहों में रात रहती है । इस हिसाब से समस्त भरत क्षेत्र में एक साथ ही सूर्य दिखाई देना चाहिये और अमेरिका एशिया में जो रात दिन का अंतर है वह नहीं होना चाहिये । परन्तु मरत क्षेत्र के अंतर्गत आर्य क्षेत्र के मध्य की भूमि बहुत अधिक ऊंची नीची होगई है। जिससे एकओ(का सूर्य दूसरी ओर दिखाई नहीं देता। वह उंचाई की आड में आ जाता है, और इसलिये उधर जाने वाले चन्द्रमा की किरणें वहां पर पडतो हैं । ऐसा होने से एक ही भरत क्षेत्र में रात दिन का अंतर पड जाता है। इस आय क्षेत्र के मध्य भाग के ऊंचे होने से पृथ्वी गोल जान पडती है उस पर चारों ओर उप समुद्रका पानी फैला हुआ है, और बीच में द्वीप पडगये हैं। इसलिये चाहे जिधर से जाने में भी जहाज नियत स्थान पर पहुंच जाते हैं । सूर्य चन्द्रमा दोनों ही लगभग जंबूद्वीप के किनारे किनारे मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुए घूमते हैं, और छह छह महीने तक उत्तरायण दक्षिणायन होते रहते हैं । इस आर्यक्षेत्रकी ऊँचाई में भी कोई कोई मीलों लबे चौडे स्थान बहुत नीचे होगये हैं और वे इतने नीचे होगये हैं कि जब सूर्य उत्तरायण होता है तभी उन पर • प्रकाश पड सकता है तथा वे स्थान ऐसे है कि जहां पर दोनों सूर्यों का प्रकाश पड़ सकता है और इसलिये उन दोनों स्थानों में दो चार महीने सतत सूर्यका प्रकाश रहता है । तथा दक्षिणायण के .. समय दो चार महीने सतत अंधकार रहता है। .
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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