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________________ .. १८१] - - - जैन-दर्शन - ११. उपशमकषाय-जो मुनि सातवें गुणस्थान से उपशम श्रेणी चढते हैं वे ऊपर लिखे अनुसार नौवें गुणस्थान में वा दशवें गुणस्थान में उन प्रकृतियों का उपशम करते जाते हैं और दशर्वे से ग्यारहवें में आ जाते हैं । परंतु इसका अतर्मुहूर्त काल व्यतीत होने पर उन उपशम किये हुए कर्मों का उदय आ जाता है तथा वे मुनि कर्मों के उदय आने से नीचे के गुणस्थानों में आजाते हैं। फिर जब कभी वे क्षपक श्रेणो चढेंगे तब ही कर्मों को नाश करते हुए बारहवें गुणस्थान में पहुंचेंगे। १२. क्षीणकषाय-इस गुणस्थान में दूसरे शुक्ल ध्यान का चिंतवन किया जाता है । पहला शुक्लध्यान श्रेणी चढने से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। दूसरे शुक्लध्यान से वे मुनि निद्रा और प्रचला प्रकृतियों को नष्ट करते हैं। फिर ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियां दर्शनावरण की शेष चार प्रकृतियों को और अंतराय की पांच प्रकृतियों को नष्ट कर तेरहवे सयोगिकेवली गुणस्थान में पहुंच जाते हैं। १३. सयोगिकेवली-इस गुणस्थान में केवल काय योग होता है इसलिये वे सयोगी कहलाते हैं तथा ऊपर लिखे कर्मों के सर्वथा नाश होने से वे केवली भगवान कहलाते हैं। उनका मोहनीय कम सब नष्ट हो जाता है इसलिये वे वीतराग कहलाते हैं । तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण के अत्यंत क्षय होने से वे सर्वज्ञ और सर्वदशी कहलाते हैं। उस समय उनके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन . अनंतसुख और अनंतवीर्य ये पार अनंत चतुष्टय प्रकट हो
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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