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________________ जैन-दर्शन ८. अपूर्वकरण-सातवे गुणस्थानवर्ती मुनि अधः प्रवृत्तिकरण के द्वारा आत्माके परिणामों को परम विशुद्ध करते हुए आठवें गुणस्थान में पहुँच नाते हैं । वहां पर उनके परिणाम अपूर्व अपूर्व विशुद्धि को धारण करते हुए और अधिक विशुद्ध हो जाते हैं । तथा अपूर्वकरण के द्वारा परम विशुद्ध होकर नौवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं। ६. अनिवृत्तिकरण-इस गुणस्थान में आकर अनिवृत्तिकरण के द्वारा अनेक कर्मों का नाश करता है। पहले भाग में साधारण, आतप, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय जाति, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत, इन सोलह प्रकृतियों को नष्ट कर देता है । फिर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ और प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ इन आठों कपायों को नष्ट करता है। फिर तीसरे भाग में नपुंसक वेद, चौथे भाग में स्त्रीवेद, पांचवें भाग में हास्य, रति, अरति, शोक भय, जुगुप्सा इन छह प्रकृतियों का नाश करता है। छठे भाग में पुवेद, सातवें भाग में संज्वलन क्रोध, आठवें भाग में संज्वलन मान तथा नौवें भाग में संज्वलन माया को नाश करता है । इस प्रकार नौवं गुणस्थान में छत्तीस प्रकृतियों का काश कर वे शुक्लध्यान को धारण करने वाले मुनि दरार्वे सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में पहुंच जाते हैं। १०. सूक्ष्मसापराय-इस गुणस्थान में वे मुनि सूम लोभ का नाश कर बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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