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________________ [ १७= जैन दर्शन मान माया लोभ में से किसी एक का उदय हो जाता है । - इस गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं होता तथापि अनंतानुबन्धी के उदयसे मिध्यात्व रूप ही परिणाम हो जाते हैं । ३. मिश्र - दशन मोहनीय की सम्यग्मिध्यात्व प्रकृति के उदय से यह तीसरा मिश्र गुणस्थान होता है। इसमें जीव के परिणाम न तो सम्यक्त्व रूप होते हैं और न मिध्यात्व रूप होते हैं उस समय एक मिले हुए विलक्षण परिणाम होते हैं । ४. असंयत - मिथ्यात्व गुणस्थानवर्त्ती जीव जय सम्यग्दर्शन को घात करने वाली सानों प्रकृतियों का उपशम कर लेता है अथवा क्षय वा क्षयोपशम कर लेता है उस समय चौथा असंयत गुणस्थान होता है। यह चौथा गुणस्थान सम्यग्दर्शन के प्रकट होने पर ही होता है तथा आगे के सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टी जीव के ही होते हैं । ५. संयतासंयत--जब चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव अप्रत्याख्यानाचरण क्रोध मान माया लोभ इन प्रकृतियों का क्षयोपशम कर लेता है तब उसके पांचवां गुणस्थान होता है । अप्रत्याख्यानावरण कपाय के क्षयोपशम होने से यह जीव भावक के व्रत धारण कर लेता है और ग्यारहवीं प्रतिमा तक यही पांचवां गुणस्थान रहता है । ६, संयत वा प्रमत्तसंयत--जब वह पांचवां गुणस्थानवर्ती जीव प्रत्याख्यानावरण क्रोध' मान माया लोभ कषाय के क्षयोपशम होने
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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