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________________ - - - जैन-दर्शन अपने २ नाम के अनुसार गुणों को धारण करते हैं। गुणस्थान चौदह हैं उनके नाम इस प्रकार हैं। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत ( अविरत सम्यग्दृष्टि), संयतासंयत (विरताविरत), प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवली, अयोगि केवली । संक्षेप से इनका स्वरूप इस प्रकार है ) १. मिथ्यात्व--दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। मिथ्यात्व के उदय से यह जीव तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान नहीं करता, विपरीत श्रद्धान करता है । एकेन्द्रिय आदि जीवों को हिताहित का ज्ञान ही नहीं होता और कोई कोई जीव जान बूझ कर विपरीत श्रद्धान करते हैं । सम्यग्ददृष्टी थोडे से जीवों को छोडकर शेष समस्त संसारी जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहते हैं। २. सासादन-जिसके मिथ्यात्व कर्म का उदय तो न हो परन्तु अनंतानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ इन प्रकृतियों में से किसी एक का उदय आजाय तो उस समय सासादन गुणस्थान हो जाता है । जिस समय इस जीव के परिणामों में विशुद्धि होती है और सम्यग्दर्शन को घात करनेवाली मिथ्यात्व, सम्यक्-प्रकृतिमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनंतानुनन्धी क्रोध मान माया लोभ इन सात प्रकृतियों का उपशम होने से उपशम सम्यग्दर्शन हो जाता है । उपशम सम्यग्दर्शन का काल अन्तमुहूर्त है। उस काल की समाप्ति होने के कुछ समय पहले अनंतानुबन्धी क्रोध
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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