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________________ - - - - जैन-दर्शन १६ । दानांतराय-जिसके उदय से दान देने में विन आजाय, दान न देसके। ___ भोगांतराय-जिसके उदय से भोगों में . विघ्न आजाय, भोगों की प्राप्ति न हो सके। उपभोगांतराय-जिसके उदय से उपभोगों में विघ्न हो जाय, उपभोग प्राप्त न हो सके। लाभांतराय-जिसके उदय से लाभ में विघ्न पाजाय, लाभ न हो सके। वीर्यान्तराय-जिसके उदय से वीर्य वा शक्ति में विघ्न आजाय, शक्ति वा बल प्राप्त न हो सके। स्थितिवन्ध ऊपर प्रतिबन्ध का स्वरूप लिख चुके हैं। वे कम इस जीव के साथ कितने दिन तक ठहरते हैं यह बतलाना ही स्थितिबन्ध है। स्थितिबन्ध कपायों से विशेष सम्बन्ध रखता है। यदि काय अत्यन्त तीन होते हैं तो स्थिति भी अधिक पड़ती है और कषायों के सन्द होने से स्थिति कम पड़ती है। जैसे कषाय होते हैं वैसे ही स्थिति होती हैं। : ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर है। नाम गोत्र की वीस
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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