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________________ जैन-दर्शन १४३ ) चलने के लिये प्रेरणा नहीं करता, यदि मछली चलती है तो पानी सहायक हो जाता है उसी प्रकार धर्म द्रव्य भी चलने के लिये किसी को प्रेरणा नहीं करता किंतु जब जीव वा पुद्गल चलते हैं तब वह सहायक अवश्य हो जाता है। यह धर्मद्रव्य समस्त लोका. काश में व्याप्त होकर भरा हुआ है । लोकाकाश के आगे अलोकाकाश में यह द्रव्य नहीं है इसीलिये अलोकाकाश में कोई द्रव्य नहीं जा सकता । सब द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं। अधर्मद्रव्य - यहभी एक अखंड और अमूर्त द्रव्य है और जीव पुगलों के ठहरने में सहायक होता है । जिस प्रकार चलने वाले पथिक के लिये किसी वृक्ष की सघन छाया उस पथिक के ठहरने में सहायक हो जाती है उसी प्रकार चलते हुए जीव पुद्गलों के ठहरने में धर्म द्रव्य सहायक हो जाता है। जिस प्रकार छाया ठहरने के लिये प्रेरणा नहीं करती, यदि पथिक ठहरता है तो वह उसकी सहायक हो जाती है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य ठहरने के लिये किसी.को प्रेरणा नहीं करता यदि जीव पुद्गल ठहरते हैं वा ठहरे हैं उनके ठहरने में वह सहायक अवश्य हो जाता है। यह अधर्मद्रव्य भी समस्त लोकाकाश में व्याप्त . होकर भरा हुआ है। इन धर्मद्रव्य.. तथा अधर्मद्रव्य से ही लोकाकाश. और अलोकाकाश का विभाग होता है । जितने क्षेत्र में धर्म और धर्म द्रव्य है उतने क्षेत्र वा आकाशको लोकाकाश कहते हैं। ..
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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