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________________ -- जैन-दर्शन १४१] . भूलते हैं। क्योंकि आकाश अमूर्त है इसलिये उसका गुण शब्द भी अमूर्त ही होना चाहिये । परन्तु अमूर्त शब्दसे ये काम कभी नहीं हो सकते । इसलिये कहना चाहिये कि शब्द पुद्गल है और पुद्गलसे ही उत्पन्न होता है । बंध भी पुद्गल है, क्योंकि वह दो पुद्गल पदार्थों के मिलने से ही होता है। पुद्गलको छोडकर अन्य सव पदार्थ अखंड और अमूर्त हैं इसलिये वे अन्य किसी भी पदार्थ से मिल कर बंध रूप नहीं हो सकते । सूक्ष्म और स्थूल ये दोनों भेद पुद्गल में ही हो सकते हैं। जैसे यह पत्थर छोटा है वह बड़ा है। संस्थान प्राकर को कहते हैं । यह चौकोर है, यह गोल है ये सब आकार पुद्गल में ही होते हैं। भेद वा टुकडे भी पुद्गल के ही होते है तथा वे छह प्रकार होते हैं-उत्कर, चूर्ण, खंड, चूर्णिका, प्रतर, अणुचटन । आरासे लकडो के जो टुकडे होते हैं उसको उत्कर कहते हैं । चक्कीसे जो गेहूँ जो पिसते हैं। उसको चूर्ण कहते हैं । घडे के टुकडोंको.खंड कहते हैं । मूंग उडदको दालको चूर्णिका कहते हैं। बादलों के टुकडों को प्रतर कहते हैं। लोहे को अग्नि में तपाकर धन से पीटने से जो स्फुलिंगे उडते हैं उनको अणुचटन कहते हैं। इस प्रकार भेद भी छह प्रकार है। अंधकार दिखाई पड़ता है इसलिये पुद्गल है । छाया वा चित्र सव दिखाई पड़ते हैं इसलिये पुद्गल हैं । सूर्य के प्रकाशको आतप कहते हैं और चन्द्रमा की चांदनी को उद्यात कहते हैं । ये दोनों ही दिखाई पड़ते हैं तथा उष्ण और शीत हैं इसलिये पुद्गल हैं। इस प्रकार पुगल के आनेक भेद हैं। .
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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