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________________ - - जैन-दर्शन २-मांसका त्याग-विना जीवका बात किये मांस उत्पन्न नहीं हो सकता । तथा जिसका मांस होता है उसमें उसी जाति के अनंत जीव उत्पन्न होते रहते हैं तथा मरते रहते हैं। मांस चाहे कच्चा हो चाहे पक्का हो, चाहे पक रहा हो प्रत्येक अवस्था में तथा प्रत्येक समय में उसमें जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इसके सिवाय जो मांस भक्षण करता है उसके परिणाम मदा कर रहते हैं वह किसी भी जीव की रक्षा नहीं कर सकता । उसके परिणामों में कभी दया उत्पन्न नहीं हो सकती । ऐसी अवस्था में न तो उसके सम्यग्दर्शन हो सकता है और न वह मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो सकता है। इस लिये मांसका सर्वथा त्याग कर देना हो आत्माका कल्याण करने वाला है। शहदका त्याग-शहदकी मक्खियां फूलों का रस चूस ले जाती हैं, कुछ समय तक उनके पेट में उस रसका परिपाक होता है। परिपाक होने के अनंतर जब शहद बन जाता है तब मक्खियां उसे उगलकर अपने छत्ते में रख लेती हैं उसीको शहद कहते हैं। इस प्रकार वह शहद प्रथम तो मक्खियों का उगाल है तथा पेट में परिपाक होने के अनंतर जो उगाल होता है उसमें प्रत्येक समय जीव उत्पन्न होते रहते हैं । इसीलिये शहदका स्पर्श करने मात्र से भी उन जीवोंका घात होता है फिर खाने की तो बात ही क्या है। इसलिये शहद का भक्षण करना मांस-भक्षण के समान है । अतः इसका सर्वथा त्याग कर देना ही आत्माका कल्याण करने वाला है।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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