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________________ जैन-दर्शन जीवों की रक्षा होती है, अयाचिकवृत्ति सिद्ध होती है और तपश्चरण की वृद्धि होती है। नग्नता-मुनिराज वस्त्रादिक परिग्रह के सर्वथा त्यागी होते हैं। वे अपने शरीर को न वस्त्र से ढकते हैं, न पत्तों से ढकते हैं, न किसी छाल से ढकते हैं और न चमडा आदि अन्य किसी पदार्थ से ढकते हैं । इसके सिवाय आभूपण वस्त्र आदि सब के सर्वथा त्यागी होते हैं। इस प्रकार वे मुनिराज दिगम्बर अवस्था धारण कर जगत पूज्य माने जाते हैं। अस्नान व्रत-मुनिराज स्नान के सर्वथा त्यागी होते हैं । स्नान करने से जलकायिक जीवों का घात होता है तथा त्रस जीवों का घात होता है । इसलिये शरीर में पसीना आदिका मल हो जाने पर भी वे मुनि कभी स्नान नहीं करते। भूशयन- मुनिराज प्रासुक भूमि पर शयन करते हैं । जिस भूमि पर कोई जीव जंतु न हो ऐसी भूमि पर शयन करते हैं । अथवा काठ के तख्ते पर, तृण या घास को वनी शय्यापर, बिना कुछ विछाये पैर संकुचित कर रात्रि में थोडा शयन करते हैं। अदंतधावन व्रत-मुनिराज दंत धावन नहीं करते । दंत धावन में भी जीवों का घात होता है इसलिये वे उंगली से, नखसे, दतौनसे, किसी तृणसे, पापाण या छाल से किसी से भी दंत-धावन नहीं करते और इस प्रकार वे इन्द्रिय संयम का पालन करते हैं । स्थितभोजन-भोजन करते समय वे मुनिराज समान भूमिपर या पाटा पर चार अंगुल के अंतर से दोनों पैरों को रखकर खडे
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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