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________________ [१० तो राग करना और न द्वप करना समता है। इसीको सामायिक कहते हैं। जैन-दर्शन स्तुति-भगवान ऋपभदेव से लेकर महावीर पर्यंत चौवीस तीर्थकरों की स्तुति करना, उनके नाम की निरुक्ति पूर्वक उनके गुणों का वर्णन करना तथा मन वचन काय की शुद्धता पूर्वक उनकी भाव करना स्तुति है। चंदना-अरहंत सिद्ध या उनको प्रतिमाओं को प्रणाम करना उनकी स्तुति करना अथवा दीक्षागुरु, विद्यागुरु, गुणगुरु की स्तुति करना, प्रणाम करना, अहेद्भक्ति, सिद्धभक्ति पूर्वक अरहंत सिद्ध और उनकी प्रतिमा की भक्ति करना, श्रुतभक्ति पूर्वक आचार्यादिक की वंदना करना, मन वचन काय की शुद्धता पूर्वक उनकी स्तुति आदि करना वंदना है। प्रतिक्रमण-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव संबंधा कोई भी अपराध होने पर मन वचन काय की शुद्धता पूर्वक अपनी निंदा करना, गर्दा करना प्रतिक्रमण है।। प्रत्याख्यान-मन वचन कायकी शुद्धता पूर्वक पाप के कारण ऐसे नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, क्षेत्र, काल इन छहोंका सर्वथा त्याग कर देना तथा आगामी काल के लिये त्याग कर देना और नियम कर लेना कि मैं अशुभ नाम स्थापना आदि को न कभी करूंगा, न वचन से कहूँगा और न मन से चितवन कलंगा, न
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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