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________________ सन्तोषधन हो सन्निकट प्रियमित्र सम संसार हो। मनमें न हो दुर्वासना तनपर न तिलभर वस्त्र हो, निर्भीक हो यह आत्मा करमें न कोई शस्त्र हो । तपोवन । योगीश्वरों के वाससे शोभित तपोवन थे यहाँ, सब दुःखले संतप्त मानव शान्ति पाते थे वहां । अध्यात्म अमृतकी वहां धारा बरसती थी अहो, सुन्दर तपोवनमें कहो फिर मुग्ध किसका मन न हो निग्रंथ ऋषियोंके तपोवन शांतिके शुभधाम थे, संसार त्यागी साधुवर वे सर्वदा निष्काम थे। अमरेन्द्र-काननसे अधिक सुख शांति थी उद्यानमें, था देखते बनता ऋषीश्वर लीन हों जब ध्यानमें। अकृत्रिमता। उन पूर्वजो के चित्त-मन्दिरमें न कृत्रिमता रही, चिरकाल कृत्रिमता जगतमें क्या कहोटिकती कहीं यो तज नहीं सकती कदाचित् वस्तु अपने धर्मको, क्या सिंह,कहलाया गधा परिधानकर तचर्मको ? उस चक्रवर्ती से कहा था दिव्य-देवों ने यही, १ ओढ़ कर । २ चक्रवर्ती सनत्कुमार अत्यन्त सौन्दर्य-शाली थे।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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