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________________ .०. श्रोता। विद्वान पुरुषों का सदा करते रहे सत्कार वे, निज शक्तिभर इस लोकका करते रहे उपकार वे। जो कुछ सुना उसको मुदित हो कार्यमें परिणत किया, निज धर्मके श्रद्धानसे आलिप्त था उनका हिया। वैराग्य। कृत्रिम न था वैराग्य, हम उसमें सदाही लीन थे, वैराग्य-वारिधिका हमें सब लोग कहते मीन थे। उच्छिष्ट सम जिस वस्तुको हमने मुदित होतज दिया, उसके लिये फिर भूलकर व्याकुल न होताथा हिया। करते हुये गृहकार्य सब उनमें न मन आसक्त था, पापाचरण अथवा कषायोंमें न कोई लित था। वे मानते थे विश्व सुख सब सान्त कर्माधीन है, आत्मीक-सुख सर्वत्र ही अविचल परम स्वाधीन है रहता हुआ जलमें अहो ! निरपेक्ष पंकज है यथा, अनपेक्ष इन संसार-कार्यासे हमी तो थे तथा। आलिप्स कीचड़से कनक ज्यों शुद्धता तजता नहीं, ज्ञानी पुरुष तज शुद्धता त्यो मोहको भजता नहीं। भगवान मनमें थी यही निर्जन-विपिन आगार हो,
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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