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________________ छह मासतक निज बन्धु शव ले प्रेमसे व्याकुलफिरे मातंग भी देखो अहिंसा धर्मका धारी हुआ, धनदेवसा क्या अन्य कोई सत्य संचारी हुआ ? वह वारिषेण स्तुत्य है अस्तेय व्रत धारो सदा, कितना सुदृढ़ था शोलपर वह मीनकेननर सर्वदा। जयने किया परिमाण जो उसको कभी छोड़ा नहीं, अघसे कभी सम्बन्ध उसने स्वप्नमें जोड़ा नहीं। अपनी परीक्षाके समय वे सर्वथा निश्चल रहे. उपसर्ग जो आ आ पड़े आनन्दसे सहते रहे । उनके चरणमें शीश अपना इन्द्रको झुकना पड़ा, अन्याय और अनीतिको सर्वत्र ही रुकना पड़ा। जिस ओर उत्तेजितचले उस ओर सारा जगचला, आदर्श नर संसारका करते रहे निशिदिन भला। श्री बाहुवलसे एक दिन उत्तम तपस्वी थे यहां, श्रीकृष्ण या बलदेवसे उत्तम यशस्वी थे यहां । उनके गुणोंको आज भी गाता सकल संसार है, गुणगानका प्रत्येक नरको सर्वथा अधिकार है। १ चाडाल। २ प्रद्युम्नकुमार। ३ जयकुमार।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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