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________________ १० प्रत्येक कामों में विजय पुरुषार्थसे पाते रहे । अभिमान तज करके हुये अमरेन्द्र उनके दास थे, संसारके सद्गुण सभी रहते उन्हींके पास थे । लक्ष्मी सदा उनके भवन पानी अहो ! भरती रही, जिह्वाग्रमें जग भारती आवास नित करती रही। उन पूर्वजोंके सामने मनकी व्यथा मरती रही, अवलोक उनके तेजको यों आपदा डरती रही । भोगभूमि अहा ! एक दिन मृगराज थे निज क्रूरता छोड़े हुये, वे भी हमारे कृत्य से सम्बन्ध ये जोड़े हुये । शूली न थी, फांसी न थी, नहिं मर्त्य कारागार १ थे, यस ! दंड दोषीके लिये हा ! मा ! तथा धिक्कार थे । जो सुख न था दिविलोकमें वह सौख्य था भूपर हमें, नमते रहे सुर प्रेमसे सिर, स्वर्गसे आकर हमें । सुर लोकके सुरतरु हमारे हेत धरणीमें रहे, अभिलाप अपनी पूर्ण हम उनसे सदा करते रहे । चिन्ना न धी, दुख, शोक, क्रोध विरोध भी रंचक न था आनन्दमें सब लीन थे यमराजका भी भय न था । १ जेट |
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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