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________________ 』 निःशंक अति निर्भीक होके परिषदों में बोलते, यशके लिये उनके कभी भी मन सुमेरु न डोलते । त्रैलोक्यकी पा सम्पदा अभिमान वे करते न थे, यमराज से भी धर्म हित वे स्वप्न में डरते न थे । जिस कामको वे ठान लेते पूर्ण करते थे उसे, स्वप्न में भी जानते थे पथ पतन कहते किसे ? आदर्श उनके काम थे जिससे अभीतक नाम है, जीवित हमारा धर्म उनके कार्यका परिणाम है । अन्यायकारी अंग भी अपना नहीं था प्रिय उन्हें, निज पुत्रको भी दण्ड देना न्याय से था प्रिय उन्हें । निज धर्मपर बलिदान होते थे अहो ! हंसते हुये, सब प्राणियोंको आत्मवत् ही मानते थे वे हिये । ले के प्रतिज्ञा तोड़ना उनको कभी आता न था, उनके विपुल औदार्यका कोई पता पाता न था । संसारमें रहते हुये वे भोगियोंमें श्रेष्ठ थे, परमार्थमें रहते हुये वे योगियोंमें जेष्ठ थे । गृह शूर वन करके प्रथम तप शूर बनते थे वही, सहते उपद्रव थे मुदित विचलित न होते थे कहीं । दिविलोक१ में उनके गुणोंके गीत सुर गाते रहे, १ स्वर्ग ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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