SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है हे सज्जनो, करके कृपा अब आप आलू छोड़िये, निज पूर्वजोंकी रीतियोंको स्वप्नमें नहिं तोड़िये । खाते स्वयं आलू तथा हा! अन्य भक्ष्याभक्ष्य वे, अपने वचन ऊपर कभी देते नहीं हैं लक्ष्य थे। ब्रह्मचारीगण। पत्नी नहीं है गेहमें इस देहमें पल भी नहीं, पाणिग्रहण भी दूसरा अब हो नहीं सकताकहीं। जो कर नहीं सकते तनिक भी लोकमें पुरुषार्थको, वे बन रहे हैं ब्रह्मचारी सिद्ध करने स्वार्थको । १६८ बस, लोक पूजा चाहिये निज धर्मसे क्या काम है, हैं ब्रह्मचारी पर हृदयमें कामिनीका नाम है। चिन्ता न है उनके हृदयमें लेश भी परमार्थको, मर जांय चाहे दुसरा उनको पड़ी है स्वार्थकी, । १६४ आहार सुन्दर मिष्ट अथवा पौष्टिक होता जहां, मनमें मुदित होते हुए वे जीमने जाते वहां। हैं ब्रह्मचारी दूसरोंको ही दिखानेके लिये, ऊपर रंगे हैं, वस्त्र लेकिन श्याम है उनके हिये।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy