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________________ १३० १६२ रहते यहां व्याख्यान सारे सामयिक निन्दा भरे, उपदेशकोंसे पिण्ड छुटेगा हमारा कव हरे। दस पांच रुपये फीसके वे तो सहज ही मांगते, अपनी दुरंगी चालको वे स्वप्नमें कब त्यागते ? परको लुभानेके लिये चे ढोंग क्या करते नहीं, अपवाद अथवा पापसे मनमें तनिक डरते नहीं। श्रीमान् लोगोंकी बड़ाईका विपुल पुल बांधना, आता इन्हें अच्छी तरहसे स्वार्थ कोरा साधना । उपदेशकों की देखलो चहुंओर ही भरमार है, क्या जाति अथवा धर्मका इनसे हुआ उपकार है ? ये तो परस्पर द्वेषका दुर्वीज चोना जानते, परकी भलाईमें नहीं अपनी भलाई जानते। १५ इस पेट पोषणके लिये करने पड़ें उपदेश सव, इसके लिये संसारमें धरने पड़ें दुर्वेश सव । सुनते रहे श्रोता प्रथम उपदेशको जिस भावसे, सुनते नहीं हैं आज वे उसकोकभी निजचावसे।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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