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________________ १२५ कविता | यह जानते हैं नहीं कहते गणागण भी किसे ? करने लगे कविता, जगत फिर क्यों न कविता पर हंसे ? पिंगल पढ़ा नहिं नामको तुकबन्द कोरा छंद है, हरिगीतिकामें गीतिका चलता सदा स्वच्छंद है । १७४ होगी न सुन्दर उक्ति उसमें पदललित होंगे नहीं, टूटे हुये अक्षर भला क्या शोभ सकते हैं कहीं। है अर्थ साधारण सदा सब ही पुराना भाव है, निज नाम हो जावे जगतमें यह हृदयकी चाव है । जनसंख्याका ह्रास | हा ! धर्मसे धनसे तथा जनसे हमारा ह्रास है, अवलोक करके नाश निज होता न किसको त्रास है । जब हम न होंगे लोकमें तब धर्म भी होगा नहीं, आधार बिन आधेय भी पलभर न रह सकता कहीं । १७६ इस हासकी भी ओर क्या जाता किसीका ध्यान है ! जन-नाशही सबके लिये अतिशय भयंकर वाण है।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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