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________________ सवही स्वदेशी औषधीका ढोंग वे फैलायेंगे, प्रच्छन्न१ कितनी ही दवायें डाक्टरों से लायेंगे। १७० उनकी दवासे पेटका भी रोग मिट सकता नहीं, बीमार-मानव भी अहो चिरकाल टिक सकता नहीं। विज्ञापनों को देखकर तारीफ जो जाते वहां, कुछ कालमें पैसा लुटाकर लौट आते हैं अहा ! पुस्तकालय। है पुस्तकालय भी सभीको ज्ञानके दाता सदा, स्वाध्याय करनेसे वहां कल्याण होता सर्वदा । आधुनिक-ग्रन्थालयोंमें ग्रन्थ जैसे चाहिये, अति यत्न करने पर न उनमें अन्य वैसे पाइये। १७२ नाटक, सिनेमा घर यहां ऐसे मिलेंगे आपको, जो शान्तिके बदले यदायें चित्तके सन्तापको । है एककी उनमें कथा यस | आप पढ़ते जाइये. यह दरकपाजी सीग्विये दिन २ बिगड़ते जाइये।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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