SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाचार-पत्र । हा, कर रहे काले यहाँ कागज चलाकर लेखनी, द्वेषाग्नि बढ़ती आज पत्रोंसे यहांपर चौगुनी । होते न यदि ये पत्र तो इतनी कलह बढ़ती नहीं, यह जाति पक्षापक्षके भी पाठको पढ़ती नहीं। १४६ होता नहीं मतभेद इतना आज जितना दिख रहा, शास्त्रोक्त लिखता एक तो पर अन्य कुछही लिख रहा साहित्यका रहता नहीं है लेख उनमें नामको, होते दुखी ग्राहक इन्हींमें डालकरके दामको। घस, बस, हृदयके दुर्विचारोंकी अधिकतर पुष्टि है, अपने प्रयोजन-सिद्धि-हित इनकी हुई अब सृष्टि है। निज धर्म सेवाका प्रथम आदेश होना चाहिये, कटु शब्द लिख विद्वोषका क्या बीज बोना चाहिये ? आचार्य वचनोंका उलंघन अव किया जाता यहां, विपरीत उनका अर्थ भी समझा दिया जाता यहां। से के किसी भी पंक्तिको स्वयमेव लड़ने लग गये, अपशब्दका उपयोग करके और बढ़ने लग गये। .
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy