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________________ porani हाँ ! मानवोंका तो यहांपर खूनतक भी माफ है, पर औरतोंका सूक्ष्मतः होता यहाँ इन्साफ है । इन धर्म भ्रष्टा नारियोंकी जो विकट होती दशा, यों लिख न सकती लेखनी जी धाम करके दुर्दशा। दुष्कर्म करनेके लिये करते विवश मानव उन्हें, पुरुषत्वसे वे दूर, कहना चाहिये दानव उन्हें । वेश्या बनाते नारियों को हम निजी अधिकारसे, करते पृथक उनको जरासी घातपर आगार से । १४७ हा जातिच्युत निज जातिसे करने लगेसवही धृणा, निर्वाह क्या होतान उनका इस जगतमें हम पिना? तैयार रहते दूसरे उनको मिलानेके लिये, सप्रेम अपने साथमें उनको खिलानेके लिये। १ वर्तमानमें पञ्चायतोंका अन्याय जो जोर-शोर पर है। चे दिन निकट ही है जय फि इनको अपने दुरत्यौपर परवाना होगा। जो दशा मध्याहके सूर्यफी होती है वही दगा इनकी भी होगी। मनुष्य न्यायका सापीहे अन्यायका नदी।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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